एक गाँव में एक वृद्ध महिला रहती थी, जिसके सात पुत्र थे। छ: पुत्र काम करके परिवार का पालन पोषण करते थे, जबकि सातवाँ बेटा निकम्मा था। वृद्ध महिला अपने छह पुत्रों का खाना बनाकर उन्हें परोसती थी, और जो खाना बच जाता था, उसे वह अपने सातवें पुत्र को खिला देती थी।
एक दिन, सातवाँ पुत्र अपनी पत्नी से बोला, “देखो, मेरी माँ मुझसे कितनी मोहब्बत करती है।” पत्नी ने हंसते हुए कहा, “क्यों नहीं, वह तो तुम्हें सबका बचा हुआ खाना खिलाती है।” पति ने जवाब दिया, “मैं तब तक मानूंगा नहीं जब तक मैं खुद नहीं देख लूं।”
कुछ समय बाद, त्योहार का दिन आया। घर में विशेष खाने की तैयारी हुई, और लड्डू भी बने। सातवाँ पुत्र ने सिर दर्द का बहाना बनाकर रसोई में ओढ़ कर सो गया, ताकि वह सब कुछ देख सके।
वह ने देखा कि उसकी माँ ने अपने छह बेटों के लिए सुंदर आसन बिछाया, उन्हें विभिन्न प्रकार की व्यंजनें परोसी, और प्यार से उन्हें खिलाया। बाद में, जब छह बेटे खाना खाकर उठ गए, तो माँ ने उनकी थालियों में से लड्डू के टुकड़े उठाकर एक लड्डू बनाया।
Santoshi Mata Vrat Katha
सातवाँ पुत्र ने देखा कि उसकी माँ ने उसे बुलाया और बचे हुए खाने को परोसा। वह तुरंत बोला, “माँ, मुझे भोजन नहीं करना, मैं परदेश जा रहा हूँ।” माँ ने दुःखित होकर कहा, “तो आज ही जा।” वह बिना कुछ कहे घर से निकल गया।
सातवें बेटे ने परदेश जाने का निश्चय कर लिया, और वह अपनी पत्नी से मिलने गौशाला गया। वहाँ पहुंचकर, उन्होंने अपनी पत्नी से विदाई ली और अपनी अंगूठी उसे दी। पत्नी ने हाथ में गोबर भरा होने के कारण अपनी निशानी के रूप में उसकी पीठ पर गोबर की थाप मार दी। वह दूर देश की ओर चल दिया, और अपनी पुरानी जिंदगी को पीछे छोड़ दिया।
वहाँ एक व्यापारी की दुकान स्थित थी। एक युवक वहाँ पहुंचा और व्यापारी से बोला, “भाई साहब, कृपया मुझे नौकरी पर ले लो।” व्यापारी को नौकर की आवश्यकता थी, इसलिए उसने उसे रख लिया। युवक ने तनख्वाह के बारे में पूछा, तो व्यापारी ने कहा कि काम देखकर मुवाफा दिया जाएगा। इस प्रकार, उस युवक को व्यापारी की दुकान में नौकरी मिल गई, और वह प्रतिदिन सुबह सात बजे से रात दस बजे तक काम करने लगा।
कुछ ही दिनों में, वह दुकान के सभी लेन-देन, हिसाब-किताब, और ग्राहकों को सामान बेचने के सभी कार्य संचालित करने लगा। व्यापारी के अन्य सात-आठ नौकर उसकी बुद्धिमत्ता से चकित हो गए। यह वाकई बहुत होशियार साबित हुआ।
व्यापारी ने उसकी कठिनाई और ईमानदारी को देखते हुए उसे तीन महीने में ही अपने मुनाफे का आधा हिस्सेदार बना दिया। कुछ वर्षों में वह प्रसिद्ध व्यापारी बन गया, और मुख्य मालिक ने पूरा कारोबार उसके हवाले कर दिया।
वहीं उसकी पत्नी को उसकी सास-ससुर ने परेशानी देना शुरू कर दी। वे उसे घर का सभी काम करवाते और लकड़ी लेने के लिए जंगल भेज देते। उसे घर के आटे की भूसी से रोटी बनाकर और फूटे नारियल के पानी से खाना खिलाते। एक दिन, वह लकड़ी लेने जा रही थी, और रास्ते में कुछ स्त्रियां संतोषी माता का व्रत करती हुई देखी।
वह वहाँ रुकी और कथा सुनने लगी, फिर उनसे पूछा- “बहनें, आप किस देवी का व्रत कर रही हो और इससे क्या लाभ होता है?” एक स्त्री ने जवाब दिया कि वह संतोषी माता का व्रत है, जिससे गरीबी और दरिद्रता नष्ट हो जाती है, और मन में जो भी इच्छाएँ होती हैं, वे सभी संतोषी माता की कृपा से पूरी होती हैं।
इसके बाद, वह स्त्री ने व्रत की पूरी विधि बताई, जिसमें सवा आने का गुड़ चना लेना, प्रत्येक शुक्रवार को निराहार रहकर कथा सुनना, उद्यापन में खाजा, खीर, चने का साग बनाना, आठ लड़कों को भोजन कराना, और उस दिन घर में सफेद वस्त्र का उपयोग करना आदि शामिल थी।
पत्नी ने सोचा कि उसकी सास-ससुर जिनको वह दिन-रात घर का सारा काम करती है, उनसे कैसे मुक्ति मिलेगी। उसे जल्दी से संतोषी माता का व्रत करना था। लेकिन उसे गुड़ चना खरीदने के लिए पैसे कहाँ से मिलेंगे?
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ऐसा सोचते हुए, उसने जंगल में जाकर लकड़ी तोड़ना शुरू किया। तभी उसकी नजर एक वृक्ष पर पड़ी, जिसमें लाल फूल खिले थे। उसने उस वृक्ष की ओर जाकर देखा और देखा कि उसके निचे एक खाजाना दबा हुआ था। उसे समझ में आ गया कि वह संतोषी माता का चमत्कार है, और वह नौकरी की तरह जी रही है जैसे उसका पति कर रहा है।
पत्नी ने वृक्ष के निचे से सोने की मुद्राएं निकाली और उनसे गुड़ चना खरीदा। उसने जल्दी से अपने घर जाकर संतोषी माता की मूर्ति बनाई और व्रत की पूरी विधि के अनुसार पूजा की।
वह आठ हफ्तों तक श्रद्धापूर्वक व्रत रखती रही। जिस दिन उसने व्रत का उद्यापन किया, उसी दिन उसके पति ने भी उनकी दुकान का उद्घाटन किया। उनका कारोबार तेजी से बढ़ने लगा, और उन्होंने अपने नए घर में शिफ्ट कर लिया।
पति-पत्नी ने संतोषी माता की कृपा से दरिद्रता को दूर किया, और वे खुशहाल जीवन जीने लगे। उन्होंने संतोषी माता का धन्यवाद किया, और हमेशा उनकी पूजा करते रहे।
रास्ते में जाते हुए उसने अपने लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उस पैसे से अपनी माँ के व्रत की सामग्री खरीद ली। जब उसने एक मंदिर देखा, तो उसने पूछा कि यह मंदिर किसका है? लोगों ने उसे बताया कि यह संतोषी माता का मंदिर है। उसने मंदिर में जाकर माता की पूजा की।
वह बहुत दुखी थी और माता से कह रही थी, “माँ, मैं बहुत अज्ञानी हूँ, मुझे व्रत के नियम नहीं पता। कृपया मेरी मदद करो।” माता जी उसपर दया करती हैं, और उसके पति का पत्र और पैसा आ जाता है।
जब उसकी सास और देवर ताने मारते हैं, तो वह अपनी सीधी सोच से कहती है, “भैया, जो भी पैसा और पत्र आते हैं, वे हम सब के लिए अच्छे हैं।” वह मंदिर में जा कर रोती है और माता से कहती है, “माँ, मुझे पैसे की जरूरत नहीं है, मैं तो अपने पति के दर्शन चाहती हूँ।”
माता जी उसकी सुनती हैं और उसके पति के सपने में जा कर उसे समझाती हैं कि उसे अपनी पत्नी की ओर ध्यान देना चाहिए। वह अपनी दुकान से सारे कारोबार को सुलझाता है और घर वापस जाने की तैयारी करता है।
उसकी पत्नी रोज़ जंगल से लकड़ी लाती है और माता के मंदिर में आराम करती है। एक दिन, वह धूल उड़ती देखती है और माता से पूछती है, “हे माता! यह धूल क्यों उड़ रही है?” माता कहती हैं, “तेरा पति आ रहा है।” और उसे तीन बोझ लकड़ी ले जाने की सलाह देती हैं।
उसकी पत्नी अपने पति के अनेक दिनों बाद दर्शन करती है, और उनकी मुलाकात होती है। दोनों मिल कर अपने घर वापस जाते हैं, और माता जी की कृपा से उनकी जिंदगी में सुख-शांति आ जाती है।
तुम्हारे पति जब लकड़ी का गट्ठर देखेंगे, उन्हें उसे देखकर खुशी होगी, और वे यहाँ ठहरेंगे। वे नाश्ता और पानी खाकर अपनी माँ से मिलने जाएंगे। उसके बाद तुम्हे लकड़ी का बोझ उठाना होगा और बजार में गट्ठर डालकर जोर से पुकारना होगा- “सासू माँ, लकड़ी का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खेपड़े में पानी दो, आज कौन मेहमान आया है?” वह तीन गट्ठर बनाकर एक नदी के किनारे और एक मंदिर में रख देगी।
जब मुसाफिर वहाँ पहुंचे, उन्हें सूखी लकड़ी देखकर वहाँ ठहरने की इच्छा हुई। वे वहाँ ठहरकर खाना बनाये, खाये-पिये और गाँव जाएं। गाँव में सबसे मिलकर खुशी हुई। उसी समय, लकड़ी का गट्ठर सिर पर लिए, वह उतावली से आती है। उसने गट्ठर आंगन में डालकर जोर से पुकारी- “सासू माँ, लकड़ी का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो। आज कौन मेहमान आया है?”
उसकी सास ने उसे देखकर कहा- “बहु, ऐसा क्यों कह रही हो? तेरा पति तो आया है। आ बैठ, मिठाई खा, कपड़े और गहने पहन।” उसका पति बाहर आया, और उसने अंगूठी देखकर समझ गया। उसने माँ से पूछा- “माँ, यह कौन है?” माँ ने जवाब दिया- “बेटा, यह तुम्हारी पत्नी है। तुम जब से गए हो, वह सारे गाँव में भटकती रहती है।”
पति ने कहा- “ठीक है माँ, मैंने इसे भी देखा और तुम्हें भी, अब मुझे दूसरे मकान की चाबी दो, मैं वहाँ रहूँगा।” माँ ने कहा- “जैसी तुम्हारी मरजी।” उसने दूसरे मकान का कमरा खोलकर सामान सजाया, और वह राजा के महल की तरह दिखने लगा। बहु खुशी खुशी जीने लगी।
शुक्रवार को वह व्रत रखने लगी। उसने पति से कहा- “मुझे संतोषी माता का व्रत रखना है।” पति ने कहा- “खुशी से कर लो।” उसने तैयारी की, लेकिन जिठानी ने अपने बच्चों को सिखाया कि वे खटाई माँगें। जब उन्होंने खटाई माँगी, तो वह उन्हें पैसे दे दी।
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एक समय की बात है, लड़के तेजी से इमली की खटाई खाने लगे। इसे देखकर बहू की माँ ने बहुत गुस्सा किया। तभी राजा के दूत ने उसके पति को पकड़ लिया और ले गए। जेठ और जेठानी अपनी मनमानी बातें कहने लगे, “जितना धन लूट-लूट कर इकट्ठा किया है, वह सब अब जेल में मार खाकर मालूम होगा।” इस पर बहू को बहुत दु:ख हुआ।
बहू ने माँ संतोषी से माफी मांगी और रोती हुई मंदिर में चली गई। वह बोली, “हे माता! तुमने क्यों ऐसा किया? पहले हंसाया और फिर रुलाया?” माता ने कहा, “बेटी, तूने मेरे व्रत का उल्लंघन किया है।” बहू ने कहा, “मैंने भूल से लड़कों को पैसे दे दिए थे, क्षमा करो।” माँ ने कहा, “अब भूल मत करना।”
माँ संतोषी ने बहू को आश्वस्त किया, “तेरा पति रास्ते में मिलेगा।” जब वह मिला, तो वह बोली, “कहाँ गए थे?” उसने कहा, “धन का टैक्स राजा ने माँगा था, वह भरने गया था।” वह प्रसन्न हो बोली, “अच्छा हुआ, अब घर चलो।” और उसने फिर संतोषी माता का व्रत किया।
वह बोली, “मुझे फिर माता का उद्यापन करना है।” पति ने कहा, “करो।” जेठानी ने बच्चों को सिखाया, “पहले ही खटाई माँगना।” लड़के भोजन से पहले कहने लगे, “हमें खीर नहीं खानी, खटाई दो।” वह बोली, “खटाई नहीं मिलेगी।” और उसने ब्राह्मण के लड़कों को खिलाया। संतोषी माता प्रसन्न हुईं।